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Rudrastadhyayi / Rudri- Path or Shri Rudram From Shukla Yajur Veda

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ॐ श्री गुरुभ्यो नमः ॐ श्री शिवानन्दाय नमः ॐ श्री चिदानन्दाय नमः ॐ श्री दुर्गायै नमः 

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रुद्राष्टाध्यायी  :

इसे शुक्लयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी भी कहते हैं। रुद्राष्टाध्यायी दो शब्द रुद्र अर्थात् शिव और अष्टाध्यायी अर्थात् आठ अध्यायों वाला, इन आठ अध्यायों में शिव समाए हैं। वैसे तो रुद्राष्टाध्यायी में कुल दस अध्याय हैं परंतु आठ तक को ही मुख्य माना जाता है।

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रुद्राष्टाध्यायी क्या है? :

रुद्राष्टाध्यायी यजुर्वेद का अंग है और वेदों को ही सर्वोत्तम ग्रंथ बताया गया है। वेद शिव के ही अंश है वेद: शिव: शिवो वेद:। अर्थात् वेद ही शिव है तथा शिव ही वेद हैं, वेद का प्रादुर्भाव शिव से ही हुअा है। भगवान शिव तथा विष्णु भी एकांश हैं तभी दोनो को हरिहर कहा जाता है, हरि अर्थात् नारायण (विष्णु) और हर अर्थात् महादेव (शिव) वेद और नारायण भी एक हैं । यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में वेदों का इतना महत्व है तथा इनके ही श्लोकों, सूक्तों से पूजा, यज्ञ, अभिषेक आदि किया जाता है। शिव से ही सब है तथा सब में शिव का वास है, शिव, महादेव, हरि, विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, नीलकंठ आदि सब ब्रह्म के पर्यायवाची हैं। रुद्र अर्थात् ‘रुत्’ और रुत् अर्थात् जो दु:खों को नष्ट करे, वही रुद्र है। 

रुद्रहृदयोपनिषद् में लिखा है कि रूद्र ही ब्रह्मा, विष्णु है सभी देवता रुद्रांश है और सबकुछ रुद्र से ही जन्मा है। इससे यह सिद्ध है कि रुद्र ही ब्रह्म है, वह स्वयम्भू

महिमा :

इसी रुद्र (शिव) के उपासना के निमित्त रुद्राष्टाध्यायी ग्रंथ वेद का ही सारभूत संग्रह है। जिस प्रकार दूध से मक्खन निकालते हैं उसी प्रकार जनकल्याणार्थ शुक्लयजुर्वेद से रुद्राष्टाध्यायी का भी संग्रह हुआ है। इस ग्रंथ में गृहस्थधर्म, राजधर्म, ज्ञान-वैराज्ञ, शांति, ईश्वरस्तुति आदि अनेक सर्वोत्तम विषयों का वर्णन है।

मनुष्य का मन विषयलोलुप होकर अधोगति को प्राप्त न हो और व्यक्ति अपनी चित्तवृत्तियों को स्वच्छ रख सके इसके निमित्त रुद्र का अनुष्ठान करना मुख्य और उत्कृष्ट साधन है। यह रुद्रानुष्ठान प्रवृत्ति मार्ग से निवृत्ति मार्ग को प्राप्त करने में समर्थ है। इसमें ब्रह्म (शिव) के निर्गुण और सगुण दोनों रूपों का वर्णन हुआ है। जहाँ लोक में इसके जप, पाठ तथा अभिषेक आदि साधनों से भगवद्भक्ति, शांति, पुत्र पौत्रादि वृद्धि, धन धान्य की सम्पन्नता और स्वस्थ जीवन की प्राप्ति होती है; वहीं परलोक में सद्गति एवं मोक्ष भी प्राप्त होता है। वेद के ब्राह्मण ग्रंथों में, उपनिषद, स्मृति तथा कई पुराणों में रुद्राष्टाध्यायी तथा रुद्राभिषेक की महिमा का वर्णन है।

वायुपुराण में लिखा है–

जो व्यक्ति समुद्रपर्यन्त, वन, पर्वत, जल एवं वृक्षों से युक्त तथा श्रेष्ठ गुणों से युक्त ऐसी पृथ्वी का दान करता है, जो धनधान्य, सुवर्ण और औषधियों से युक्त है, उससे भी अधिक पुण्य एक बार के रुद्री[4] जप एवं रुद्राभिषेक का है। इसलिये जो भगवान शिव का ध्यान करके रुद्री का पाठ करता है, वह उसी देह से निश्चित ही रुद्ररूप हो जाता है, इसमें संदेह नहीं है।

इस प्रकार साधन पूजन की दृष्टि से रुद्राष्टाध्यायी का विशेष महत्व है।

प्राय: कुछ लोगों मे यह धारणा होती है कि मूलरूप से वेद के सुक्त आदि पुण्यदायक होते हैं अत: इन मन्त्रों का केवल पाठ और सुनना मात्र ही आवश्यक है। वेद तथा वेद के अर्थ तथा उसके गंभीर तत्वों से विद्वान प्राय: अनभिज्ञ हैं। वास्तव में यह सोच गलत है, विद्वान वेद और वान से मिलकर बना है, तो वेद के विद्या को जो जाने वही विद्वान है, इसके संदर्भ में उनको जानकारी होना आवश्यक है। प्राचीन ग्रंथों में भी वैदिक तत्वों की महिमा का वर्णन है।

निरुक्तकार कहते हैं कि जो वेद पढ़कर उसका अर्थ नहीं जानता वह भार वाही पशु के तुल्य है अथवा निर्जन वन के सुमधुर उस रसाल वृक्ष के समान है जो न स्वयं उस अमृत रस का आस्वादन करता है और न किसी अन्य को ही देता है। अत: वेदमंत्रों का ज्ञान अतिकल्याणकारी होता है–

अत: रुद्राष्टाध्यायी के अभाव में शिवपूजन की कल्पना तक असंभव है।

परिचय :

रुद्राष्टाध्यायी अत्यंत ही मूल्यवान है, न ही इससे बिना रुद्राभिषेक ही संभव है और न ही इसके बिना शिव पूजन ही किया जा सकता है। यह शुक्लयजुर्वेद का मुख्य भाग है। इसमें मुख्यत: आठ अध्याय हैं पर अंतिम में शान्त्यध्याय: नामक नवम तथा स्वस्तिप्रार्थनामन्त्राध्याय: नामक दशम अध्याय भी हैं।

इसके प्रथम अध्याय में कुल 10 श्लोक है तथा सर्वप्रथम गणेशावाहन मंत्र है, प्रथम अध्याय में शिवसंकल्पसुक्त है।

द्वितीय अध्याय में कुल 22 वैदिक श्लोक हैं जिनमें पुरुसुक्त (मुख्यत: 16 श्लोक) है। इसी प्रकार आदित्य सुक्त तथा वज्र सुक्त भी सम्मिलित हैं।

पंचम अध्याय में परम् लाभदायक रुद्रसुक्त है, इसमें कुल 66 श्लोक हैं। छठें अध्याय के पंचम श्लोक के रूप में महान महामृत्युंजय श्लोक है।

सप्तम अध्याय में 7 श्लोकों की अरण्यक श्रुति है प्रायश्चित्त हवन आदि में इसका उपयोग होता है।

अष्टम अध्याय को नमक-चमक भी कहते हैं जिसमें 24 श्लोक हैं।


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By Mala Chandrashekhar

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